कितने पन्ने,
कितनी कलम
और
कितने ही शब्द ,
बहा दिए मैंने
तुम्हारे अस्तित्व को
अपने वाक्यों की
परिधि में
बाँधने के लिए.
पर तुम,
तुम्हारी हर बात,
और उस बात
की भी बात,
मेरे व्याकुल मन,
मेरी उतावली लेखनी,
मेरे काव्य की पहुँच से
कहीं ऊपर हैं .
बहुत कोशिशों
और समय बाद,
खुद को
पराजित पाती हूँ ,
परन्तु विचलित नहीं हूँ.
क्योंकि,
तुम तक पहुँचने की
यह राह
भले ही मुश्किल हो,
पर थोड़ी सी ही सही
कुछ दूरी तो
मैंने तय कर ही ली हैं...
Ye bahut acha hai...
जवाब देंहटाएंdhanyavaad.
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