शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

जब भी होता है साम्राज्य
शीत का ,तम् का...
सूरज अकेले ही
करता हैं ...युद्ध ।

मैं चाहता हूँ
एक दिन
सूरज करे विश्राम
और तुम उसकी
जगह ले लो,
ताकि जान सको,
तुम किसी सूरज से
कम नही हो....





गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

दो आँखें हैं ....
जो हर वक्त
पीछा करती रहती हैं।
जब मैं सुबह उठती हूँ,
तो लगता हैं कि
परदे के पीछे से
देख रही हैं मुझे।
हर बात जो मैं बोलती हूँ
नाप तौल लेती हूँ उसे ...
क्योंकि नज़र रखी
जा रही हैं मुझपर ।
कल ही तो एक झूठ
निकल गया था मुहं से ,
तो चुभती रही वो आँखें दिनभर ।
वो आँखें ...
'माँ'
क्या तुम्हारी हैं?

अब तक ..

उस राह के ,
उस मोड़ पर,
जहाँ से तुम्हारा सफर
शुरू हुआ था ,
किसी की मंज़िल
वहीँ है अब तक ।
जिसे तुम छोड़ कर
बहुत आगे निकल चुके हो
वह जड़ हो चुकी है
स्तब्ध रह गई है
वहीँ पर अब तक ।
तुम्हारे जीवन नें
अनेक मौसम देखे होंगे ,
कुछ शीत , कुछ बरखा और
कुछ वसंत के
उसके जीवन में लेकिन
पतझर है अबतक ।
तुमने अपना भाग्य
स्वयं अपने हाथों बनाया
पर इस सत्य से तो
तुम भी अनभिज्ञ हो कि
लिखा है किसी और का भाग्य भी
तुमने ही अनजाने में...
जो तुम्हारी प्रतीक्षा को
नीयति मान कर
जी रही है अब तक ।
तो वापस जाओ और
उस पाषाण शिला को
जीवान्वित कर दो ,
शायद उसमें
जीवन जीने के आसार
कुछ बचे हो अब तक।

विवश..

मानव ...
सृष्टा की अमूल्य रचना,
अपनी सीमाओं को पराजित करता
एक आजाद जीव।
जो बड़े से बड़े आकाश को
भी भेद सकता है,
गहरी से गहरी सुरंग
बना सकता है
धरती के गर्भ में।
फ़िर यह कैसी विवशता है ......
कि वाही मानव्
थाह नही पा सकता
अगले मानव् के हिय की।
शायद यही है
मानव् ,तुच्छ मानव्
होने की
विवशता ..... ।

अक्सर आकाश गंगा की
सूनसान किरणों पर खड़े होकर
जब मैंने अथाह शून्य में
अनंत ,प्रदीप्त सूर्यों को
कोहरे की गुफाओं में
पंख टूटे जुगनूओं की तरह
रेंगते देखा है
तो मैं भयभीत होकर
लौट आया हूँ।
-धर्मवीर 'भरती'