रविवार, 12 दिसंबर 2010

वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा ज्ञान
निकल कर नैनों से चुपचाप 
बही होगी कविता अनजान 
              -सुमित्रानंदन पंत

paribhasha

कितने पन्ने,
कितनी कलम 
और 
कितने ही शब्द ,
बहा दिए मैंने
तुम्हारे अस्तित्व को 
अपने वाक्यों की 
परिधि में 
बाँधने के लिए.

पर तुम,
तुम्हारी हर बात,
और उस बात 
की भी बात,
मेरे व्याकुल मन,
मेरी उतावली लेखनी,
मेरे काव्य की पहुँच से
कहीं ऊपर हैं .

 बहुत कोशिशों 
और समय बाद,
खुद को 
पराजित पाती हूँ ,
परन्तु विचलित नहीं हूँ.
क्योंकि,
तुम तक पहुँचने की
यह राह 
भले ही मुश्किल हो,
पर थोड़ी सी ही सही
कुछ दूरी तो 
मैंने तय कर ही ली हैं...

main pathik..

मैं
एक पथिक,
जीवन की गलियों के
ख़त्म होने का
इंतज़ार करता हूँ...

ये पथ , पथरीले ,
पथराये,
मेरे मन को कुछ
यूं डराए
कहते हैं," हे मानुष ,
किधर चले ?
किस राह की खोज में?
क्या सत्य की?"
हंसकर बोले,"मूर्ख,
खो जाओगे,
चोट खाओगे,
क्यों अपना सर्वस्व
गँवाओगे ?
चुपचाप चले चलो
जिधर मैं लिए चलूँ ,
मुड जाओ
उस ओर ही तुम
जिधर मैं रुख किये चलूँ.
राहें आसान लगेंगी
गर मेरे अस्तित्व में
रम जाओगे .
मैं जिद्दी , हठधर्मी
अड़ियल एवं
निष्ठुर ...
तुमसे कई आये गए,
कुछ रुके कुछ मारे गए ,
कुछ रह गए हो कर शोकाकुल .
पर सच हैं की
मैं करता हूँ
पुरुषार्थी योद्धाओं को नमन,
वे जो छोड़ मुझे 
बनाते नित नए चमन.
जो जीत जाते 
मुझ हठी को भी 
अपने अटूट साहस से,
मैं देता उनको अवसर अनेक
स्वर्ण, रजत एवं तामस से.
पर याद रखो तुच्छ प्राणी,
मुह से डटने से पहले
देखो खुद में क्या 
साहस हैं?
क्या बदल सकोगे 
मेरा रुख?
यदि नहीं तो 
जीयो अपने उन 
निष्प्राण , निस्तेज जीवों सम 
रहो उन्ही के तुम 
सम्मुख."

मैं 
एक पथिक,
जीवन की राहों से हटने,
स्वयं के स्मित को जीवित रखने ,
पथ का समर स्वीकार करता हूँ.

पथ ने बिखराए 
कंटक अनेक,
म्रिग्त्रिश्नाएं उत्पन्न कीं
परखने को मेरा विवेक.
जब चल पड़ा हूँ 
सामना करने 
जीवन पथ के संघर्षो का,
देखता हूँ अभय खुद को,
पर सफ़र हैं वर्षों का .
जीत लूँगा इस डगर को
यह हृदय में विश्वास हैं.
स्वयं बनाऊंगा मैं मंजिल
नित सहर नित आस हैं.
छीन लूँगा इस पथ से 
कुछ शिलाएं ,
अमर करूंगा 
नाम अपना,
लिखी जाएंगी फिर कथाएं .
सामना करने का साहस 
एवं सच्चाई हैं प्रमुख.
नहीं होना लाचार मुझको
नहीं होना हैं विमुख.

मैं 
एक पथिक,
जीवन पथ के संघर्षों पर
डट कर प्रहार करता हूँ.

मुझे कल्पना करने दो 
आसमान छूने की. 

फैलाने की अपने परों को
इस असीम ,नीलाभ आकाश में.

चलने की उन असंख्य,
शीतल अभ्रों पर.

देखने की स्वयं को,
उन अनंत ऊंचाइयों के पार.

उड़ने की सभी पक्षियों के साथ 
दूर तक.
मुझे जीने दो...