शनिवार, 29 अगस्त 2009

फ़िर एक बार आज...

अभी अभी
एक आवाज़ सी
सुनाई दी
मेरे अंतर्मन से...
जैसे किसी शांत झील में
एक हलचल सी हुई हो
और बिखरी हो सोच की लहरें
हर दिशा में...
फ़िर मैंने महसूस किया
अपने होने को...
लेकिन
क्या सिर्फ़ होना ही काफ़ी है?
यूँ तो जीवित रहना
अर्थहीन, व्यर्थ लगता है।
फ़िर कुछ शिकायतें की मैंने
अपने आप से
मैं रूठी ख़ुद से
मनाया मैंने स्वयं ही
और जगाई एक नन्ही किरण
अपने मन के कोने में।
जैसे किसी पुरानी कुटिया
में किया हो दीपदान।
अपनी उँगलियों के पोरों से
महसूस किया बोझिल पलकों को,
संवारा अपने उलझे बालों को
अपनी उलझी ज़िन्दगी की तरह।
फ़िर एक बार आज
बहुत दिनों बाद
दर्पण को देखा
और देखा मन के कोने में रखा
वो छोटा सा दीप
टिमटिमाता ..अपनी आंखों में ,
फ़िर....
मैंने महसूस किया
अपने जीवित होने को।

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