गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

दो आँखें हैं ....
जो हर वक्त
पीछा करती रहती हैं।
जब मैं सुबह उठती हूँ,
तो लगता हैं कि
परदे के पीछे से
देख रही हैं मुझे।
हर बात जो मैं बोलती हूँ
नाप तौल लेती हूँ उसे ...
क्योंकि नज़र रखी
जा रही हैं मुझपर ।
कल ही तो एक झूठ
निकल गया था मुहं से ,
तो चुभती रही वो आँखें दिनभर ।
वो आँखें ...
'माँ'
क्या तुम्हारी हैं?

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